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{{ParUG|20}} उदाहरणार्थ, “बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने” का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो। — या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।
{{ParUG|20}} उदाहरणार्थ, “बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने” का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो। — या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।


{{ParUG|21}} वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है : ‘जानने’ के प्रत्यय में और ‘विश्वास होने’, ‘अनुमान करने’, ‘संशय करने’, ‘कायल होने’ जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि “मैं जानता हूँ कि.....” कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ “मैं समझता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है। — किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए — किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता।
{{ParUG|21}} वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है : ‘जानने’ के प्रत्यय में और ‘विश्वास होने’, ‘अनुमान करने’, ‘संशय करने’, ‘कायल होने’ जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि “मैं जानता हूँ कि....” कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ “मैं समझता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है। — किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए — किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता।


{{ParUG|22}} यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है “मैं भूल नहीं कर सकता”; या फिर जो कहता है “मैं गलत नहीं हूँ”, तो यह बात विचित्र ही होगी।
{{ParUG|22}} यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है “मैं भूल नहीं कर सकता”; या फिर जो कहता है “मैं गलत नहीं हूँ”, तो यह बात विचित्र ही होगी।
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और क्या ''यह'' आनुभविक प्रतिज्ञप्ति है : “ऐसा लगता है कि भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है”?
और क्या ''यह'' आनुभविक प्रतिज्ञप्ति है : “ऐसा लगता है कि भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है”?


{{ParUG|36}} “अ एक भौतिक पदार्थ है” यह एक ऐसे व्यक्ति को दी जाने वाली सीख है जिसे अभी तक या तो यह नहीं पता कि “अ” क्या है, या फिर जो “भौतिक पदार्थ” के अर्थ से अनभिज्ञ है। यानी यह वाक्य तो शब्द प्रयोग को सीखना है, पर “भौतिक पदार्थ” एक तार्किक प्रत्यय है। (जैसे कि रंग, परिमाण,.....) यही कारण है कि “भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है” जैसी कोई प्रतिज्ञप्ति प्रतिपादित नहीं की जा सकती।
{{ParUG|36}} “अ एक भौतिक पदार्थ है” यह एक ऐसे व्यक्ति को दी जाने वाली सीख है जिसे अभी तक या तो यह नहीं पता कि “अ” क्या है, या फिर जो “भौतिक पदार्थ” के अर्थ से अनभिज्ञ है। यानी यह वाक्य तो शब्द प्रयोग को सीखना है, पर “भौतिक पदार्थ” एक तार्किक प्रत्यय है। (जैसे कि रंग, परिमाण,....) यही कारण है कि “भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है” जैसी कोई प्रतिज्ञप्ति प्रतिपादित नहीं की जा सकती।


फिर भी हमारा सामना ऐसे असफल प्रयासों से हमेशा होता रहता है।
फिर भी हमारा सामना ऐसे असफल प्रयासों से हमेशा होता रहता है।
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{{ParUG|55}} तो क्या यह ''प्राक्कल्पना'' संभव है कि हमारे चारों ओर फैली वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है? क्या यह अपने सभी परिकलनों में गलती कर जाने की प्राक्कल्पना जैसी नहीं होगी?
{{ParUG|55}} तो क्या यह ''प्राक्कल्पना'' संभव है कि हमारे चारों ओर फैली वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है? क्या यह अपने सभी परिकलनों में गलती कर जाने की प्राक्कल्पना जैसी नहीं होगी?


{{ParUG|56}} जब हम कहते हैं : “शायद इस ग्रह का अस्तित्व नहीं है, और इस प्रकाश-संवृति का कोई अन्य कारण है”, तो हमें किसी अस्तित्वयुक्त वस्तु के उदाहरण की आवश्यकता पड़ती है। इसका अस्तित्व नहीं है, — ''जैसे कि, उदाहरणार्थ,''..... का अस्तित्व है।
{{ParUG|56}} जब हम कहते हैं : “शायद इस ग्रह का अस्तित्व नहीं है, और इस प्रकाश-संवृति का कोई अन्य कारण है”, तो हमें किसी अस्तित्वयुक्त वस्तु के उदाहरण की आवश्यकता पड़ती है। इसका अस्तित्व नहीं है, — ''जैसे कि, उदाहरणार्थ,''.... का अस्तित्व है।


या फिर हमें कहना होगा कि ''निश्चितता'' एक ऐसी कसौटी है जिस पर कुछ चीजें अधिक और कुछ कम खरी उतरती हैं। नहीं। संशय शनै : शनै : अपने अर्थ को खोता है। यह भाषा-खेल ऐसा ही है।
या फिर हमें कहना होगा कि ''निश्चितता'' एक ऐसी कसौटी है जिस पर कुछ चीजें अधिक और कुछ कम खरी उतरती हैं। नहीं। संशय शनै : शनै : अपने अर्थ को खोता है। यह भाषा-खेल ऐसा ही है।
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{{ParUG|60}} यह कहना गलत है कि यह कागज का एक टुकड़ा है और बाद का अनुभव इस प्राक्कल्पना की पुष्टि या खण्डन करेगा, और यह कहना भी गलत है कि “मैं जानता हूँ कि यह कागज का एक टुकड़ा है”, इस वाक्य में “मैं जानता हूँ” किसी प्राक्कल्पना या फिर किसी तार्किक संकल्प से संबंधित है।
{{ParUG|60}} यह कहना गलत है कि यह कागज का एक टुकड़ा है और बाद का अनुभव इस प्राक्कल्पना की पुष्टि या खण्डन करेगा, और यह कहना भी गलत है कि “मैं जानता हूँ कि यह कागज का एक टुकड़ा है”, इस वाक्य में “मैं जानता हूँ” किसी प्राक्कल्पना या फिर किसी तार्किक संकल्प से संबंधित है।


{{ParUG|61}} .... किसी शब्द का अर्थ उसका प्रयोग है।
{{ParUG|61}} ... किसी शब्द का अर्थ उसका प्रयोग है।


क्योंकि हमारी भाषा में शामिल होने के बाद ही हम उसे जानते हैं।
क्योंकि हमारी भाषा में शामिल होने के बाद ही हम उसे जानते हैं।
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{{ParUG|115}} यदि आप हर बात पर संदेह करें तो आप किसी भी बात पर संदेह नहीं कर पाऐंगे। आश्वासन संदेह के खेल की पूर्वमान्यता है।
{{ParUG|115}} यदि आप हर बात पर संदेह करें तो आप किसी भी बात पर संदेह नहीं कर पाऐंगे। आश्वासन संदेह के खेल की पूर्वमान्यता है।


{{ParUG|116}} “मैं जानता हूँ कि....” कहने के बदले क्या मूअर यह नहीं कह सकते थे : “मैं इस बारे में आश्वस्त हूँ कि.....”? और फिर यह कहते : “मैं और अनेक अन्य लोग इस बारे में आश्वस्त हैं कि.....।”
{{ParUG|116}} “मैं जानता हूँ कि....” कहने के बदले क्या मूअर यह नहीं कह सकते थे : “मैं इस बारे में आश्वस्त हूँ कि....”? और फिर यह कहते : “मैं और अनेक अन्य लोग इस बारे में आश्वस्त हैं कि....।”


{{ParUG|117}} इस बात के बारे में मैं शंकित क्यों नहीं हो सकता कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ? और इस पर मैं संदेह कैसे करूँ?
{{ParUG|117}} इस बात के बारे में मैं शंकित क्यों नहीं हो सकता कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ? और इस पर मैं संदेह कैसे करूँ?
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{{ParUG|122}} क्या सन्देह के लिए आधार की आवश्यकता नहीं है?
{{ParUG|122}} क्या सन्देह के लिए आधार की आवश्यकता नहीं है?


{{ParUG|123}} मुझे तो कहीं भी..... इस बात पर सन्देह करने का आधार दिखलाई नहीं देता।
{{ParUG|123}} मुझे तो कहीं भी.... इस बात पर सन्देह करने का आधार दिखलाई नहीं देता।


{{ParUG|124}} मैं कहना चाहता हूँ : हम विवेक के सिद्धान्त के रूप में विवेक का ही प्रयोग करते हैं।
{{ParUG|124}} मैं कहना चाहता हूँ : हम विवेक के सिद्धान्त के रूप में विवेक का ही प्रयोग करते हैं।
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{{ParUG|133}} साधारणतया मैं अपने दोनों हाथों को देखकर उनके अस्तित्व के बारे में आश्वस्त नहीं होता। क्यों नहीं? क्या मुझे अनुभव से पता चला है कि यह व्यर्थ है? या (फिर) : क्या हमने पहले किसी सार्वभौमिक आगमनात्मक नियम को सीखकर यहाँ भी उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया? — किन्तु हमें ''विशिष्ट'' नियम की बजाय ''सार्वभौमिक'' नियम का पता पहले क्यों चलता है?
{{ParUG|133}} साधारणतया मैं अपने दोनों हाथों को देखकर उनके अस्तित्व के बारे में आश्वस्त नहीं होता। क्यों नहीं? क्या मुझे अनुभव से पता चला है कि यह व्यर्थ है? या (फिर) : क्या हमने पहले किसी सार्वभौमिक आगमनात्मक नियम को सीखकर यहाँ भी उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया? — किन्तु हमें ''विशिष्ट'' नियम की बजाय ''सार्वभौमिक'' नियम का पता पहले क्यों चलता है?


{{ParUG|134}} किसी पुस्तक को मेज़ की दराज़ में रखकर मैं उसके वहीं रखे रहने की कल्पना करता हूँ जब तक कि.....। “अनुभव सदा मुझे ठीक सिद्ध करता है। पुस्तक के (यकायक) लुप्त होने का कोई प्रामाणिक अनुभव नहीं है।” किसी विशेष स्थान पर पुस्तक के होने का पक्का अनुमान होने पर भी ''कभी-कभी'' पुस्तक वहाँ उपलब्ध नहीं होती। — किन्तु अनुभव से ही हमें वास्तव में यह पता चलता है कि कोई पुस्तक लुप्त नहीं हो जाती। (उदाहरणार्थ, वह भाप बन कर शनै : शनै : उड़ नहीं जाती।) किन्तु क्या पुस्तकों इत्यादि के इस अनुभव के कारण हम यह मान लेते हैं कि पुस्तक लुप्त नहीं हुई है? — क्या हमें अपनी प्राक्कल्पना को बदल नहीं देना चाहिए? क्या हम प्राक्कल्पना-प्रणाली पर पड़े अपने अनुभव के प्रभाव को झुठला सकते हैं?
{{ParUG|134}} किसी पुस्तक को मेज़ की दराज़ में रखकर मैं उसके वहीं रखे रहने की कल्पना करता हूँ जब तक कि....। “अनुभव सदा मुझे ठीक सिद्ध करता है। पुस्तक के (यकायक) लुप्त होने का कोई प्रामाणिक अनुभव नहीं है।” किसी विशेष स्थान पर पुस्तक के होने का पक्का अनुमान होने पर भी ''कभी-कभी'' पुस्तक वहाँ उपलब्ध नहीं होती। — किन्तु अनुभव से ही हमें वास्तव में यह पता चलता है कि कोई पुस्तक लुप्त नहीं हो जाती। (उदाहरणार्थ, वह भाप बन कर शनै : शनै : उड़ नहीं जाती।) किन्तु क्या पुस्तकों इत्यादि के इस अनुभव के कारण हम यह मान लेते हैं कि पुस्तक लुप्त नहीं हुई है? — क्या हमें अपनी प्राक्कल्पना को बदल नहीं देना चाहिए? क्या हम प्राक्कल्पना-प्रणाली पर पड़े अपने अनुभव के प्रभाव को झुठला सकते हैं?


{{ParUG|135}} क्या हम सदैव इस (या ऐसे) सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करते कि जो हमेशा से होता चला आया है वह पुनः घटित होगा? इस सिद्धान्त के अनुसरण का क्या अभिप्राय है? क्या हम इसे अपनी युक्तियों में शामिल करते हैं? या फिर, क्या यह कोई ऐसा ''प्राकृतिक नियम'' है जिसका अनुमान-प्रक्रिया सहज ही पालन करती है? यह तो सम्भव है। यह हमारे विचार का विषय नहीं है।
{{ParUG|135}} क्या हम सदैव इस (या ऐसे) सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करते कि जो हमेशा से होता चला आया है वह पुनः घटित होगा? इस सिद्धान्त के अनुसरण का क्या अभिप्राय है? क्या हम इसे अपनी युक्तियों में शामिल करते हैं? या फिर, क्या यह कोई ऐसा ''प्राकृतिक नियम'' है जिसका अनुमान-प्रक्रिया सहज ही पालन करती है? यह तो सम्भव है। यह हमारे विचार का विषय नहीं है।
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{{ParUG|136}} जब मूअर कहते हैं कि वे अमुक बात ''जानते'' हैं, तो वे ऐसी अनेक आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को गिनाते हैं जिन्हें हम बिना विशेष जाँच के ही स्वीकार कर लेते हैं; यानी, ये ऐसी प्रतिज्ञप्तियां हैं जिनकी हमारी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों की प्रणाली में एक विशिष्ट तार्किक भूमिका है।
{{ParUG|136}} जब मूअर कहते हैं कि वे अमुक बात ''जानते'' हैं, तो वे ऐसी अनेक आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को गिनाते हैं जिन्हें हम बिना विशेष जाँच के ही स्वीकार कर लेते हैं; यानी, ये ऐसी प्रतिज्ञप्तियां हैं जिनकी हमारी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों की प्रणाली में एक विशिष्ट तार्किक भूमिका है।


{{ParUG|137}} किसी विश्वसनीय व्यक्ति के द्वारा अपने किसी विषय के ''ज्ञान'' के बारे में मुझे भरोसा देने पर भी जरूरी नहीं कि मैं उसके ज्ञान के बारे में संतुष्ट हो जाऊँ। इससे तो उसके ज्ञान के विश्वास का पता चलता है। इसी कारण मूअर के इस आश्वासन में कि उन्हें पता है कि..... हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। फिर भी उन्हें ज्ञात सत्य प्रतिज्ञप्तियों के उदाहरण निस्संदेह रोचक हैं। इन प्रतिज्ञप्तियों के रोचक होने का कारण उनका सार्वभौमिक सत्य होना या सार्वजनिक रूप में स्वीकृत होना न होकर, हमारे आनुभविक निर्णयों की प्रणाली में उनकी ''समान'' भूमिका होना है।
{{ParUG|137}} किसी विश्वसनीय व्यक्ति के द्वारा अपने किसी विषय के ''ज्ञान'' के बारे में मुझे भरोसा देने पर भी जरूरी नहीं कि मैं उसके ज्ञान के बारे में संतुष्ट हो जाऊँ। इससे तो उसके ज्ञान के विश्वास का पता चलता है। इसी कारण मूअर के इस आश्वासन में कि उन्हें पता है कि.... हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। फिर भी उन्हें ज्ञात सत्य प्रतिज्ञप्तियों के उदाहरण निस्संदेह रोचक हैं। इन प्रतिज्ञप्तियों के रोचक होने का कारण उनका सार्वभौमिक सत्य होना या सार्वजनिक रूप में स्वीकृत होना न होकर, हमारे आनुभविक निर्णयों की प्रणाली में उनकी ''समान'' भूमिका होना है।


{{ParUG|138}} उदाहरणार्थ, हमें अन्वेषण से उनमें से किसी का भी पता नहीं चलता।
{{ParUG|138}} उदाहरणार्थ, हमें अन्वेषण से उनमें से किसी का भी पता नहीं चलता।
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{{ParUG|276}} इस विशाल भवन के अस्तित्व पर विश्वास करने के बाद ही हम इसके इस या उस कोने को देखते हैं।
{{ParUG|276}} इस विशाल भवन के अस्तित्व पर विश्वास करने के बाद ही हम इसके इस या उस कोने को देखते हैं।


{{ParUG|277}} “....पर विश्वास करने के लिए मैं बाध्य हूँ।”
{{ParUG|277}} “.... पर विश्वास करने के लिए मैं बाध्य हूँ।”


{{ParUG|278}} “वस्तुस्थिति से मैं संतुष्ट हूँ।”
{{ParUG|278}} “वस्तुस्थिति से मैं संतुष्ट हूँ।”
Line 797: Line 797:
{{ParUG|320}} यहाँ याद रहे कि ‘प्रतिज्ञप्ति’ का प्रत्यय स्वयं ही सुस्पष्ट प्रत्यय नहीं है।
{{ParUG|320}} यहाँ याद रहे कि ‘प्रतिज्ञप्ति’ का प्रत्यय स्वयं ही सुस्पष्ट प्रत्यय नहीं है।


{{ParUG|321}} क्या मैं यही नहीं कह रहा : किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को प्राक्कल्पना बनाया जा सकता है — और तब वह विवरण का मानदण्ड बन जाती है। किन्तु मुझे इस पर भी शक है। इस वाक्य में अतिव्याप्ति दोष हैं। हम यही कहना चाहते हैं “किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को सिद्धान्ततः .... में परिवर्तित किया जा सकता है”, किन्तु यहाँ “सिद्धान्ततः” का क्या अर्थ है? यह तो ''ट्रैक्टेटस'' की याद दिलाता है।
{{ParUG|321}} क्या मैं यही नहीं कह रहा : किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को प्राक्कल्पना बनाया जा सकता है — और तब वह विवरण का मानदण्ड बन जाती है। किन्तु मुझे इस पर भी शक है। इस वाक्य में अतिव्याप्ति दोष हैं। हम यही कहना चाहते हैं “किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को सिद्धान्ततः.... में परिवर्तित किया जा सकता है”, किन्तु यहाँ “सिद्धान्ततः” का क्या अर्थ है? यह तो ''ट्रैक्टेटस'' की याद दिलाता है।


{{ParUG|322}} विद्यार्थी द्वारा मनुष्यों की याददाश्त से पूर्व पर्वत के अस्तित्व को अस्वीकार कर देने पर क्या होगा?
{{ParUG|322}} विद्यार्थी द्वारा मनुष्यों की याददाश्त से पूर्व पर्वत के अस्तित्व को अस्वीकार कर देने पर क्या होगा?
Line 997: Line 997:
{{ParUG|402}} इस टिप्पणी में “आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां” अभिव्यक्ति अपने-आप में बेहूदा है; प्रसंग तो भौतिक वस्तुओं के कथन का है। जैसे किसी प्राक्कल्पना के असिद्ध हो जाने पर किसी अन्य प्रतिज्ञप्ति को आधार बनाया जा सकता है वैसे ही इन प्रतिज्ञप्तियों को आधार के रूप में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।
{{ParUG|402}} इस टिप्पणी में “आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां” अभिव्यक्ति अपने-आप में बेहूदा है; प्रसंग तो भौतिक वस्तुओं के कथन का है। जैसे किसी प्राक्कल्पना के असिद्ध हो जाने पर किसी अन्य प्रतिज्ञप्ति को आधार बनाया जा सकता है वैसे ही इन प्रतिज्ञप्तियों को आधार के रूप में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।


<blockquote>.... और विश्वास से लिखें <br/>
<blockquote>.... और विश्वास से लिखें<br/>
“आरम्भ में तो कर्म ही था।”<ref>देखें गेटे, ''फ़ाउस्ट'' I</ref></blockquote>
“आरम्भ में तो कर्म ही था।”<ref>देखें गेटे, ''फ़ाउस्ट'' I</ref></blockquote>


Line 1,288: Line 1,288:
{{ParUG|500}} किन्तु यह कथन भी मुझे निरर्थक ही लगेगा कि “मैं जानता हूँ कि आगमनात्मक सिद्धान्त सत्य है”।
{{ParUG|500}} किन्तु यह कथन भी मुझे निरर्थक ही लगेगा कि “मैं जानता हूँ कि आगमनात्मक सिद्धान्त सत्य है”।


ऐसे कथन के न्यायालय में कहे जाने की कल्पना कीजिए! “मेरा विश्वास है कि .... सिद्धान्त....” कहना अधिक उचित होगा। यहाँ ‘विश्वास’ का ''अनुमान'' लगाने से कोई सरोकार नहीं है।
ऐसे कथन के न्यायालय में कहे जाने की कल्पना कीजिए! “मेरा विश्वास है कि.... सिद्धान्त....” कहना अधिक उचित होगा। यहाँ ‘विश्वास’ का ''अनुमान'' लगाने से कोई सरोकार नहीं है।


{{ParUG|501}} क्या अन्ततोगत्वा मैं यही नहीं कह रहा हूँ कि तर्कशास्त्र वर्णन से परे है? भाषा प्रयोग से आपको इसका पता चलेगा।
{{ParUG|501}} क्या अन्ततोगत्वा मैं यही नहीं कह रहा हूँ कि तर्कशास्त्र वर्णन से परे है? भाषा प्रयोग से आपको इसका पता चलेगा।
Line 1,486: Line 1,486:
{{ParUG|566}} न ही मेरा भाषा-खेल (नम्बर 2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' §2. सं.</ref> सीखने वाला शिशु यह कहना सीखता है कि “मैं जानता हूँ कि इसे ‘पट्टिका’ कहते हैं।”
{{ParUG|566}} न ही मेरा भाषा-खेल (नम्बर 2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' §2. सं.</ref> सीखने वाला शिशु यह कहना सीखता है कि “मैं जानता हूँ कि इसे ‘पट्टिका’ कहते हैं।”


बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे “इस रंग को.... कहते हैं”।) — अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं “और इस ईंट को ‘....’ कहते हैं”, और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।
बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे “इस रंग को.... कहते हैं”।) — अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं “और इस ईंट को ‘...’ कहते हैं”, और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।


{{ParUG|567}} और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे '''लु.वि.''' कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।
{{ParUG|567}} और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे '''लु.वि.''' कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।
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{{ParUG|592}} “मैं आपको बतला सकता हूँ कि वह कौनसा.... यानी, इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।”
{{ParUG|592}} “मैं आपको बतला सकता हूँ कि वह कौनसा.... यानी, इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।”


{{ParUG|593}} जहाँ हम “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति को “यह एक....है” अभिव्यक्ति से प्रतिस्थापित कर सकते हैं वहाँ भी हम एक के निषेध को दूसरे के निषेध से प्रतिस्थापित नहीं कर सकते।
{{ParUG|593}} जहाँ हम “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति को “यह एक.... है” अभिव्यक्ति से प्रतिस्थापित कर सकते हैं वहाँ भी हम एक के निषेध को दूसरे के निषेध से प्रतिस्थापित नहीं कर सकते।


“मैं नहीं जानता कि....” अभिव्यक्ति के आते ही हमारे भाषा-खेल में एक नया घटक प्रवेश कर जाता है।
“मैं नहीं जानता कि....” अभिव्यक्ति के आते ही हमारे भाषा-खेल में एक नया घटक प्रवेश कर जाता है।